आओ दफ्तर
से आज दोपहर घर जाएं,
घर के रोशनदान
से हमदम से आँख मिलाएं.
मैं भी दफ्तर
से एक रोज़ दुपहरी घर पहुंचा,
उस रोशनदान
से वो मुझे कुछ और दिखी.
कंधे पे था
बिट्टी का बस्ता, हाथ मैं बाबा का चश्मा,
आँखों में
अम्मा की चाय और रात के खाने का परचा.
उस रोज़ दुपहरी
मैंने खुद को बोना पाया,
उसके मेहनत
के आगे खुद को नाकारा पाया.
दफ्तर के
दो-चार काम कर, लैपटॉप को थाम कर,
मैंने उसको
भुला दिया, खुद को उससे जुदा किया.
हर रोज़ उसे
जताता था, में हूँ उससे बेहतर दर्शाता था,
उस रोज़ दुपहरी
समझ गया, मैं हूँ उससे कमतर जान गया.
उसने मुझसे
क्या चाहा था, मेरे लिए अपनों को त्यागा था,
फिर भी मैं
अपनी धुन में चलता रहा,
ना जाने किस
मोड़ पर उसको छोड़ आगे बढ़ता गया.
में भूल गया,
में भूल गया, उसकी हर इक ख्वाहिश को,
उसने भी भुला
दिया अपने हर इक सपने को.
उसने अपने
होने को भुला दिया, मेरे होने को बना दिया,
में भी ये
कहने लगा, हूँ में काबिल रटने लगा.
वो धीरे-धीरे
घुलने लगी, खुद ही औरों में मिलने लगी,
जो लड़ती थी
अपने हक़ को, ना जाने क्यों गुमने लगी.
मेरे कामों
को सराहा गया, उसके त्यागों को नकारा गया,
बिट्टी में
मुझे उसका अक्स दिखा, उसके अश्कों को पढ़ ना सका.
माँ - बाप
के त्यागों को सर-माथे हमने बिठलाया,
उसके त्यागों
का हमने रद्दी का साल मोल लगाया.
हो अर्धांगिनी
ये कह कर उसका मान बढ़ाया,
पर क्या कभी
ये पहचाना,
मेरे अस्तित्व
की लड़ाई, मेरे संग किसने है निभाई,
मेरे असफल
प्रसासों की खाई किसने है मिटाई,
शायद कभी ना समझ पाऊंगा, शब्दों को ना सहेज पाऊंगा,
उसको मैंने
शब्दों मैं तो मान लिया था अर्धांगिनी,
पर वास्तव
में कभी ना जान पाया की वो थी मेरा अर्ध अंग,
या ये ज़िंदगी
थी उसके अर्ध अस्तित्व की लड़ाई.
वो कभी ना
कुछ चाहेगी, तुमसे कभी ना कुछ वो मानेंगी,
बोल दो मीठे
उससे बोल दो, वो यम से भी विद्रोह कर जाएगी.
सानिध्य पस्तोर