यूँ
तो हम अक्सर बीते
हुए लम्हों को याद करते
हैं,
कभी
हँसते तो कभी रोते
हैं, कभी ग्लानि तो कभी क्रोध
से भर जाते हैं.
आज
मैंने भी कुछ बीते
लम्हों को याद किया,
और
हवा के झोंकों के
साथ अपने बचपन की और लौट
गया.
दिन
के 4 बज रहे थे,
साजों-सामन सब रख गए
थे,
रात
10 बजे की बस थी
और आगे की सीट की
टिकट थी.
हम
सुबह से ही अलग
ख़ुशी से झूम रहे
थे,
अगली
सुबह अपने गाँव पहुँचने की ख़ुशी में
उन्मुक्त थे.
रात
के 10 बज गए, ड्राइवर
ने स्टीयरिंग संभाली,
कंडक्टर
ने सीटी बजाई और पुराने सुरीले नग्मों के साथ यात्रा
शुरू हुई.
रात
भर नींद नहीं आयी ना जाने क्यों
लबों पर केवल हंसी
ही छाई,
पापा
से 100 प्रश्न किये, कब पहुंचेंगे और कितना समय
लगेगा,
उन्होंने
हर बार कहा बस सुबह 5 बजे
हम अपने घर पर होंगे.
डेरों
में जो रहते हैं,
अपने घर की राह
हरदम तकते हैं,
तन
से तो शहर में
होते हैं पर मन से
घर-परिवार में होते है.
अब
सुबह के 5 बजे हम अपने गाँव
के पास चले,
बस
ने चौराहे पर उतार दिया,
साजो-सामान ज़मीं पर रख दिया.
हमने
भी गाँव के कच्चे रस्ते
पर अपनी आँखों को रख दिया,
हर
उठते धुल के गुबार में
अपनों के आने का
भ्रम हुआ.
जब
वो वाकई आने लगे, मानों दर्द-ओ-गम सब
दूर हुए,
गाडी
की टंकी पर बैठे खुद
को राजा मान लिया,
चाचा
के कन्धों पर सर रखा
उनको अपना दोस्त जान लिया.
घर
के बाहर दद्दा भी हमारी राह
देख रहे थे,
वो
तो पिछले 7 दिनों से हमारे आने
की राह तक रहे थे.
जाते
ही मैंने उनके पैर छुए, कन्धों पर उन्होंने उठा
लिया,
असली
राजा हमको बना दिया.
घर
से खेत, खेत से घर सारा
समय हमने बिता दिया,
ज्यों
ही वापसी का पता लगा
आँखों मैं पानी आ गया.
जाने
की मजबूरी है, पढाई भी ज़रूरी है,
ऐसा
कहकर सबने विदा किया.
उन
आँखों ने हमको ओझल
होने पर भी साथ
रखा.
उस
रात उन्होंने ना खाना खाया
ना ही कुछ काम
किया,
क्यों
अपनों को डेरों में
जाना पड़ता है ऐसा ही
सवाल किया.
रात
के यूँ ही 10 बजे उस बस में
हम सवार हुए,
जाने
क्यों खुशियां के बिना अश्कों
को साथ लिए और चल पड़े.
सानिध्य पस्तोर
(एक मुसाफ़िर)
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