Friday, October 4, 2019

अनसुलझी सी दास्तान

अनसुलझी सी दास्तान



ना जाने क्यों उसे देखकर हर मर्तबा दिल को दिलासा दिया
अक़्ल पर ना जाने क्यों बेहमुद्दत सा पर्दा रहने दिया,
उसके लिए तो हम हम से वो होने को तैयार थे
ना जाने क्यों उसने हमे हम ही ना रहने दिया .
मुझे ये इल्म था की वो अब होकर भी नहीं रही
मैंने उसे ज़ेहनी क़िस्म से रुक्सत कर दिया,
मुझे यकीन था उसके ना होने में उसकी भी रज़ामंदी होगी,
कोई ना कोई माक़ूल दलील भी रही होगी.
उसके ना होने पर रंजीदगी का कोई सवाल ही नहीं
मेरे लिए ये दुनिया केवल वो ही नहीं,
मैं बस ये तस्लीम करने की आरज़ू रखता हूँ
की जो दास्तान सुलझने को तैयार थी वो उसने अनसुलझी क्यों रहने दी.

सानिध्य पस्तोर 

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