Friday, May 8, 2020

गुल्लक

चला गाँव से ख्वाब मन में लिए,
की अगले सावन आऊंगा,
संग अपने खेल-खिलोने और कुछ पैसे संग लाऊंगा.
घर के खप्पर जो टूट गए, चूल्हे की लकड़ी जो सूख गयी,
उस छत को नया बनवाऊंगा, लकड़ी को हटा चूल्हा ही नया ले आऊंगा.
भाई को दुकान दिलानी है, बहन की शादी करानी है,
बाबा का कुर्ता सिलाना है, माँ को भी साड़ी दिलानी है,
सब कुछ धीरे-धीरे हो जाएगा
साथ में बच्चों को दो बीघा ज़मीन भी हो जाएगी.
सो आया गाँव से शहर की भूलभुलैया में,
संघर्ष कर पहले दो रोटी का प्रबंध किया,
फिर कतरा-कतरा कर कुछ पैसों से गुल्लक भी भरा.
कतरा-कतरा जोड़-तोड़ में ना जाने क्या-क्या खोया था,
कभी अपमान, कभी लाठी तो कभी खली पेट भी भोगा था.
आता था गाँव बहुत याद, आँखों में आंसू भी जाते थे,
तब अपनों के लिए संजोए सपने इन अश्कों को सुखाते थे.
सावन का मौसम आने वाला था, पैसों का गुल्लक भरने वाला था,
गाड़ी का टिकट कटाया था, ढेरों खुशियों का साया था.
तभी अचानक एक बीमारी ने आभामंडल को घेरा था,
पलक झपकते पूरी दुनिया ने दरवाज़े के उस ओर खुद को धकेला था.
जो गुल्लक हमने अपनों के लिए संजोया था,
बेमन से अपने ज़िंदा रहने को तोड़ा था.
सावन में घर जाने की ललक अचानक बढ़ गयी,
अपनों के पास ना होने की पीड़ा अचानक छलक पड़ी.
एक बार जो पहुंचे अपने गाँव तो इस शहर में ना आएँगे,
गाँव में रहकर ही गुल्लक को भरने का जतन लगाऐंगे.
मौका मिलते ही शहर को छोड़ गाँव की ओर चल दिए,
मुड़कर ना देखेंगे गाँव पहुंचकर ही दम लेंगे.
लाठी, गाली ओर अपमान सब का घूँट पियेंगे,
हर हाल में अपनों के पास अपने गाँव पहुंचेंगे.
यह पीड़ा ना बताई ना बांटी जा सकती है,
पर नीति निर्माताओं से इतनी तो आशा की जा सकती है,
कि अब नीतियों में हमारा भी कुछ ध्यान रखें,
इस गुल्लक को भरने में हमारा भी सम्मान करें.

सानिध्य पस्तोर (एक मुसाफ़िर)

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