Saturday, April 18, 2020

मुझे ना यूँ दोषी ठहराओ

आज फिर मुझ पर ये आरोप लगा है,
मैंने फिर किसी मनुष्य का शिकार किया है.
मैं तो किसी जानवर का शिकार करने था तैयार,
इतने में वो मनुष्य आ गया,
जंगल से फल-फूल-लकड़ी इखट्टी करने लग गया.
उसने चौपाया भेष धर मुझको भ्रमित कर दिया,
शिकार समझ मैंने उसकी गर्दन पर वार कर दिया.
पर मुझे ये जब ये ज्ञात हुआ नहीं है ये शिकार मेरा,
तो मैंने फिर दौड़ लगा दी घने जंगल में.
घनी घास ओर पेड़ों के बीच कहीं छुप अपनी जान बचा ली,
पर तब तक काफी देर हो गयी,
मेरी गलती की सजा मेरे साथियों ओर वन अमले को मिल गयी,
मेरे कुछ साथियों को मार दिया,
कुछ को कैद कर कहीं दूर परदेश में छोड़ दिया.
मैंने फिर हिम्मत जुटाई जंगल के बहार दौड़ लगाई,
पर बाहर जाकर में खुद भयभीत हो गया,
मदमस्त गजराज का समूह जब मेरी आँखों के करीब हो गया.
मैं फिर घने जंगल के अंदर दौड़ता हुआ ओझल हो गया,
गजराज का वो समूह भी जंगल मैं कहीं गुम हो गया,
ऐसा लगा मानो वो अपने ही पुराने घर की ओर कूच कर गया.
वो थे परचित हर राह-मोड़-पगडंडी-नहर-तालाब-नदी से,
लगा मनो वर्षों बाद आए हैं पर नक्शा नही उतरा है उनके ज़हन से.
जो अंकुश मनुष्य ने वन-वनजीवन पर लगाया था,
कोरोना ने वो कहीं दूर कर दिया.
कोरोना ने मनुष्य को भय-अवसाद से भर दिया ,
पर जंगल-ज़मीन-प्रकृति को नयी ऊर्जा से पुनर्जीवित कर दिया.
वनों से बाहर आने पर यूँ ना हमको भ्रमित-लज्जित करो,
जितना ये तुम्हारा घर है, उतना ही ये हमारा है.
मुझ पर ना यूँ आरोप लगाओ,
मुझे यूँ ना मनुष्य हत्या का दोषी ठहराओ.

सानिध्य पस्तोर (एक मुसाफिर)

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